वो सुबह ना आयी ,
ना आयी वो शाम ..
मोहोब्बत की यादें भी ...
ना दे पायी , कुछ आराम |
हम तो ग़मों के चादरों को ,
लपेटते हीं उलझे हैं ,
पता नहीं कैसे ...??
जिन्दगी की तकलीफे ने ....
उलझे रेशो की जगह ले ली ... |
अब जो सोचते है ....
चादरों का शोक,
क्यों पाला था ??
आज जो उलझे हुए है ,
" बिना बुने ..."
इन तकलीफ देने वाले ग़मों में ,
और जब भी छुटना चाहते है ,
तो पुरानी चादरों में ही ,
क्यों बार- बार उलझ जाते है ??
ना आयी वो शाम ..
मोहोब्बत की यादें भी ...
ना दे पायी , कुछ आराम |
हम तो ग़मों के चादरों को ,
लपेटते हीं उलझे हैं ,
पता नहीं कैसे ...??
जिन्दगी की तकलीफे ने ....
उलझे रेशो की जगह ले ली ... |
अब जो सोचते है ....
चादरों का शोक,
क्यों पाला था ??
आज जो उलझे हुए है ,
" बिना बुने ..."
इन तकलीफ देने वाले ग़मों में ,
और जब भी छुटना चाहते है ,
तो पुरानी चादरों में ही ,
क्यों बार- बार उलझ जाते है ??
इन तकलीफ देने वाले ग़मों में ,
ReplyDeleteऔर जब भी छुटना चाहते है ,
तो पुरानी चादरों में ही ,
क्यों बार- बार उलझ जाते है ??
बिल्कुल सही कहा आपने ... बहुत ही अच्छी प्रस्तुति।
अब समझ में आया घर में समय समय पर चादरें बदल क्यों दी जाती हैं ।
ReplyDeleteधन्यवाद सुशील कुमार जोशी ज़ी |
Deleteअच्छी पंक्तियां
ReplyDeleteधन्यवाद sushil bhole ज़ी |
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