Sunday, June 22, 2014

उस हार का इंतजार

बंदिशे प्यार की गहराइयों को ..
कभी- भी बांध नहीं सकती .....|
अगर दिल में हो चाहत ....
तो प्यार का मीठा सा दर्द भी होगा |

बस ये ऐहसास आज ना हुआ हो !!

जिसमें हार भले, आपकी हुई हो,
पर उस हार का इंतजार, 

आप सबको होता है |

वो ना सोचें कभी ...
की उनके बढते कदमों को देख ....
मैं कभी उनसें दूर हो जाऊँगी....||
जितना बढ़ेंगे वो सफलता की ओर ...
उतना हीं साफ़ उन्हें देख पाऊँगी |


और क्या माँगू तुमसे ??
अब तो मेरा प्यार ....
कोई दीवानगी नहीं है  |
ये 
तो पूजा बन गया है .... |
जिसमें हार भले मेरी हुई है |
पर जिसे जीती हूँ --
.........वो हो तुम .....  |





7 comments:

  1. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति ।

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  2. आदरणीय जानू बरुआ जी,
    प्रेम लंबे समय से लोगों के लिए अबूझ पहेली की तरह रहा है। प्रेम को लोगों ने अलग-अलग तरह के समझने की कोशिश की है। प्रेम को उपलब्ध कर लेना हमारे जीवन का उच्चतम आदर्श है। हम सभी प्रेम के परम स्रोत की तलाश में प्राय: पूरे जीवन भटकते रहते हैं और दुर्भाग्य से हममें से अधिकांश लोग उसे उपलब्ध नहीं कर पाते। हम उसे कहां-कहां नहीं खोजते। आरंभ में हमें लगता है कि माता-पिता के संबंधों में प्रेम का उच्चतम बिंदु है। लेकिन बाद के दिनों में हमेें लगता है कि हमारा व्यक्तित्व तो किसी और की एकता से ही पूरा हो सकता है। हमारी तलाश यहीं खत्म नहीं होती। फिर संतान के लिए मन तड़पने लगता है। बाद के दिनों में संतान का आकर्षण भी क्षीण होने लगता है। और हम एक बार फिर प्रियतम की तलाश में निकल पड़ते हैं। कुछ समय बाद हम महसूस करते हैं कि हमें जिसे खोज रहेे थे, वह शारिरिक स्तर पर उपलब्ध ही नहीं है। हम फिर असमंजस में पड़ जाते हैं और फिर अपने भीतर प्रेम का आदर्श निर्मित करने का प्रयास करते हैं। इस स्थिति में आश्चर्यजनक रुप से हमारे भीतर गहन आत्मसंतोष का भाव जागता है, जो हमारी सारी असफलताओं का दुख दूर कर देता है। जानू बरुआ जी, आपको भले ही लगता है कि इस मोर्चे पर आप हार गई हैं, लेकिन तो मुझे लगता है कि आपने अपने लक्ष्य को पा लिया है।

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  3. आदरणीय जानू बरुआ जी,
    प्रेम लंबे समय से लोगों के लिए अबूझ पहेली की तरह रहा है। प्रेम को लोगों ने अलग-अलग तरह के समझने की कोशिश की है। प्रेम को उपलब्ध कर लेना हमारे जीवन का उच्चतम आदर्श है। हम सभी प्रेम के परम स्रोत की तलाश में प्राय: पूरे जीवन भटकते रहते हैं और दुर्भाग्य से हममें से अधिकांश लोग उसे उपलब्ध नहीं कर पाते। हम उसे कहां-कहां नहीं खोजते। आरंभ में हमें लगता है कि माता-पिता के संबंधों में प्रेम का उच्चतम बिंदु है। लेकिन बाद के दिनों में हमेें लगता है कि हमारा व्यक्तित्व तो किसी और की एकता से ही पूरा हो सकता है। हमारी तलाश यहीं खत्म नहीं होती। फिर संतान के लिए मन तड़पने लगता है। बाद के दिनों में संतान का आकर्षण भी क्षीण होने लगता है। और हम एक बार फिर प्रियतम की तलाश में निकल पड़ते हैं। कुछ समय बाद हम महसूस करते हैं कि हमें जिसे खोज रहेे थे, वह शारिरिक स्तर पर उपलब्ध ही नहीं है। हम फिर असमंजस में पड़ जाते हैं और फिर अपने भीतर प्रेम का आदर्श निर्मित करने का प्रयास करते हैं। इस स्थिति में आश्चर्यजनक रुप से हमारे भीतर गहन आत्मसंतोष का भाव जागता है, जो हमारी सारी असफलताओं का दुख दूर कर देता है। जानू बरुआ जी, आपको भले ही लगता है कि इस मोर्चे पर आप हार गई हैं, लेकिन तो मुझे लगता है कि आपने अपने लक्ष्य को पा लिया है।

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  4. अब तो मेरा प्यार ....
    कोई दीवानगी नहीं है |
    ये तो पूजा बन गया है .... |
    जिसमें हार भले मेरी हुई है |
    पर जिसे जीती हूँ --
    .........वो हो तुम .....

    खूबसूरत !!!!! :)

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  5. शानदार नज़्म , प्रेम की नयी डाइमेंशन्स को दर्शाती हुई .

    बधाई स्वीकार करे और आपका आभार !
    कृपया मेरे ब्लोग्स पर आपका स्वागत है . आईये और अपनी बहुमूल्य राय से हमें अनुग्रहित करे.

    कविताओ के मन से

    कहानियो के मन से

    बस यूँ ही


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  6. वाह ! बहुत खूबसूरत रचना

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