Saturday, June 21, 2014

उस हक़ को हक्कित की बलि ना दों

सुनकर बड़ा अच्छा लगता था,
की दो बदन एक जान है, हम  |
ये बात मुझें आज भी सुननी है
कहा करते थे ..तुम्हारा हक है -
उस हक़ को हक्कित की बलि ना दों |

अब भी मेरे ये कान 

तुम्हारी आवाज़ खोजते है...
यही सुनने की चाह में, 

यूँ तो दिल थक चूका है ...|

उन जवाबों के इंतजार में, 
फिर भी आश नहीं टूटी है |
इंतजार करता - रहना भी कुबूल है 

पर उन्हें भुलाना मुश्किल है, अपने वजूद से  |

उनकी याद बिन बुलाये आ जाती है ,
लेकिन वो बुलाने के बाद भी नहीं आते | 


हम - खुद को उम्मीद देते है, 
( मैं और मेरा पूर्वाग्रह से ग्रसित मन )
शायद वो हारें अपनी जंग, 
मुझें भूल जाने की ....
उनकी इन कोशिशों से भी दर्द होता है |



8 comments:

  1. शायद वो हारें अपनी जंग,
    मुझें भूल जाने की ....
    उनकी इन कोशिशों से भी दर्द होता है |
    ...वाह...बहुत भावपूर्ण रचना...

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  2. बहुत सुन्दर भाव पूर्ण अभिव्यक्ति !
    नौ रसों की जिंदगी !

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  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (23-06-2014) को "जिन्दगी तेरी फिजूलखर्ची" (चर्चा मंच 1652) पर भी होगी!
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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  4. सुन्दर रचना

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  5. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।

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  6. शायद वो हारें अपनी जंग,
    मुझें भूल जाने की ....
    उनकी इन कोशिशों से भी दर्द होता है |...sundar panktiyan !

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  7. मुझें भूल जाने की ....
    उनकी इन कोशिशों से भी दर्द होता है |
    ...वाह...बहुत भावपूर्ण

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