Tuesday, June 10, 2014

सच कह रहा हूँ, ये कविता नहीं है ???

तुम उस छोर खड़ीं हो.....
लेकिन इस छोर मेरी स्तिथि तो संदिग्ध है |
ये शब्द नशीलें नहीं बस बिखरे-बिखरे से 
बेफिक्री में इधर-उधर से मैंने गड़े है ||

मुझकों मोक्ष की तलाश कहा, 
बस तुम्हारें दो कदम मेरी ओर हो 
" की उम्मीद लगी है " |
जो कुछ यूँ है जैसे अकालकाटते मेरे नैन, 
बस तुम-तुम हो, मैं-मैं हूँ और ज्यादा क्या कहूँ ???

मैं हीं तो वहीँ याचक हूँ, 

जिसने अपराध किया है |
अपराधबोध, आत्मग्लानि ने, 

लो आज अभिव्यक्ति भी करा दी ||

लेकिन मुझें सच्चें न्यायालय की तलाश है, 

पर अभिवक्ता तो मैं बिलकुल नहीं !!
तो क्या तुम निस्वार्थ भाव से मेरी पैरवी करोगी, 

सच कह रहा हूँ ये कविता नहीं है ???

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