मैं सदैव पोषण के लिए ही तरशाई ....
बैरन जवानी ने
छिना खिलैना |
लोगों ने तुझसे ही
तेरी गुड़िया चुराई |
बाबुल मैं पाली थी
नाजो में तेरे |
तो भला कैसे मैं
हो गयी पराई |
बेटी बनी ,
बहन बनी ,
और माँ भी
बन आई |
फिर भी समाज
में कमजोर लिंग
ही क्यों कहलाई ??
हर किसी ने महत्त्व
कम कर आँका
और मैं सदैव पोषण
के लिए ही तरशाई |
वाह !... दूर दिशा में दिखती लालिमा खुशी से गुनगुनाने लगी ... सवेरा हो रहा है .... सवेरा हो रहा है ..... मगर क्या सोचा है आपने कि वो सवेरा होता है तो वही लालिमा कही क्यों छुप जाती है?!!.... हाँ वह छुप कर दोपहर की धूप की गर्मी से प्रतिशोध लेने की तैयारी करती है .... और जब लौटती है तो ... एक नए जोश के साथ ... अब उसके स्वरों में ओज का आभास होता है ... एक ओजस्वी गुनगुनाहट .... अब धूप के अत्याचार को खत्म होना ही पडेगा .... अब यह धूप यहाँ से जाने वाली है ....
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार जी ....
ReplyDeleteसुन्दर रचना, आभार.
ReplyDeletedhanywad ji...
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति..
ReplyDeleteवाह ! मार्मिक रचना !
ReplyDeleteवीक लिंग की चर्चा आज कल बिग बॉस में भी है
आभार !!
मेरी नई रचना ( अनमने से ख़याल )
अलग ही अंदाज में सुंदर भावनात्मक प्रस्तुति।
ReplyDeleteनारी मन का सुंदर चित्रण।
निराले अंदाज में बहुत सुंदर प्रस्तुति,....
ReplyDelete"काव्यान्जलि"--नई पोस्ट--"बेटी और पेड़"--में click करे
धन्यवाद आप सभी का
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