आज मैं मायुस सी ,
बड़ रही हूँ , किस डगर ...
थोड़ा चल भी ना पाऊं ,
पर मंजिलों पर है, नज़र |
जो कहूँ, दुखों का बादल
फट रहा है , आज तो ...
दफ़न होते ख्वाबों में भी ,
ढूंडती हूँ , उम्मीद की डगर |
ये तड़प अब नहीं है,
किसी के वास्ते .. |
जो बहाकर गया था , प्यार में ..
उससे अब अलग है, मेरे रास्ते |
bahut sundar...kya baat kya baat.....:)
ReplyDeleteसंपा बरुआ की यह कविता स्वयं के दुखों से मुक्ति का
ReplyDeleteमार्ग प्रशस्त करती है...एक दृढ निश्चय है मन में कि
चाहे दफ़्न ख्वाबों को कुरेदकर ही कोई रास्ता क्यों न
निकालना पड़े...और ये पंक्तियाँ :
'' ये तड़प अब नहीं है,
किसी के वास्ते .. |
जो बहाकर गया था , प्यार में ..
उससे अब अलग है, मेरे रास्ते |'' इस कविता की
प्रतिनिधि पक्तियां हैं...जो नारी के स्वावलंबन
की ओर इशारा करती हैं...इस तरह संपा बरुआ
की यह कविता व्यक्तिगत पीड़ा से ऊपर उठकर
समूची नारी जाती के लिए विस्तार पा जाती है,,,
रचनाकार को बहुत बहुत बधाई...
बहुत सुन्दर रचना...
ReplyDeleteधन्यवाद आप सभी का .....
ReplyDeleteश्रवण कुमार उर्मलिया जी .... बहुत सुन्दर व्याख्या की आपने
ReplyDeleteदफ़न होते ख्वाबों में भी ,
ReplyDeleteढूंडती हूँ , उम्मीद की डगर |वाह बहुत बढिया .... और मैं श्रवण कुमार उर्मलिया जी को कहूंगा कि आप एक दम सही कह रहे हैं ....
धन्यवाद janmjay ji ...
ReplyDeleteजो बहाकर गया था , प्यार में ..
ReplyDeleteउससे अब अलग है, मेरे रास्ते |
बहुत अच्छी प्रस्तुति,,,सुंदर रचना,,,,,
MY RECENT POST काव्यान्जलि ...: बहुत बहुत आभार ,,
raaste alag bhele hee ho jaayein ,zazbaa nahee badalnaa chaahiye,pahle se jyaadaa taakat se zindgee ke safar mein chalnaa chaahiye
ReplyDeletenice poem liked it